आजकल 'बच्चों में बढता शिक्षा का दबाब' विषय एक गंभीर समस्या बन कर उभर रहा है। प्राचीन समय की शिक्षा को ज्यादा सटीक माना जाता था, क्योंकि शिक्षा से अभिप्राय सिर्फ नौकरी लगना या ज्ञान प्रदान करना ही नहीं बल्कि उसके व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास करना होता है।
लेकिन वर्तमान में शिक्षा से बढते दबाव के कारण बच्चो की मानसिकता पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ रहा है, क्योंकि बच्चों पर अच्छे अंक लाने का, एक सफल कैरियर बनाने का दबाव रहता है ।
यह दबाव अक्सर शिक्षकों, समाज और माता, पिता से आता है । इनके द्वारा अच्छे अंक व अच्छी रैंक को ही सफलता का पर्याय मान लिया जाता है।जिससे अत्यधिक प्रतिस्पर्धा व परीक्षा का डर भी बढ़ता है, परीक्षा-आधारित प्रणाली से भी बच्चे तनाव व दबाव महसूस करते है।धीरे धीरे उनमे इतना अधिक तनाव बढने लगता है कि मानसिक, सामाजिक व भावनात्मक विकास में रुकावट आने लगती है, कई प्रकार की गंभीर बीमारियों से भी ग्रस्त होने लगते है ।जैसे - भूख न लगना व नीद नहीं आना जैसी समस्याएं बच्चों के लिए आम बन गई है। यहाँ तक कि भूख नहीं लगने के कारण बच्चे खाने के प्रति उपेक्षित से रहते हैं, अधिकतर अभिभावको की यही शिकायत रहती है। विद्यालयों में जहां थोड़ी देर के लिए प्रार्थना स्थल पर खड़ा किया जाता है, तो चक्कर आने शुरु हो जाते है,, उल्टियां आनी शुरु हो जाती है। जो कहीं ना कहीं उनकी पाचन संबंधी समस्या को प्रकट करता है।
क्योंकि हमारे यहां किशोर मानसिक स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से जूझते हैं, जिससे उनकी शारीरिक गतिविधियों में भी कमी आ जाती है । आमतौर पर यही अवस्था होती है जिसमें बच्चे की नैतिकता, मूल्य व समझ का विकास होता है, शुरुआती चरणों में प्राप्त की गई शिक्षा व समझ उनके विचारों को रूपरेखा प्रदान करता है।कई प्रकार की अवधारणाएं बनाने में योगदान मिलता है, सामाजिक कौशल का विकास होता है।आज के समय में सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रश्न भी शिक्षा के रूप में उभर कर सामने आ रहा है।सिर्फ विद्यालयों, महाविद्यालयों में नहीं बल्कि प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्रों के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभर कर सामने आ रहा है।इसका सबसे बड़ा कारण यह भी है कि विश्व की युवा जनसंख्या बहुत अधिक है और लगातार बढ भी रही है।लाखों अभ्यर्थियों में से योग्य अभ्यर्थी के रूप चयनित होना भी बेहद चुनौतीपूर्ण विषय है, चयन नहीं होने के नकारात्मक परिणाम भी आए दिन सुनने को मिलते है...
इतनी क्षमता उनमें विकसित नहीं हो पाती कि इतना दबाव झेल सकें। क्योंकि प्रत्येक प्रतिस्पर्धा में 'योग्य में योग्यतम' बन कर उभरना पड़ता है जो कठिनतम भी होता है ।हालांकि बच्चों पर मात्रात्मक व गुणात्मक दोनों दृष्टियों से परिपूर्ण बनने का भारी दवाब रहता हैं इसके पश्चात भी कई अभ्यर्थी सफल नहीं हो पाते हैं जो आत्महत्या जैसे गंभीर दुष्परिणामों को सामने लेकर आता है ।ये चिंतनीय विषय है, क्योंकि जो अभ्यर्थी अपनी प्रतिभा में पूर्ण आश्वस्त रहते हैं, जिनका विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण भी तेज होता है, तार्किक क्षमता से युक्त होते हैं, कभी कभी वे भी जीवन से और प्रतिस्पर्धा से हार मान लेते है।इस विषय पर अभिभावकों को भी अपने बच्चों को 'निरंतर प्रयास करने के महत्त्व' को समझाना चाहिए, कौशल विकास में उनकी मदद करनी चाहिए, प्रतिभा को विकसित करने के प्रयास करने चाहिए।माता, पिता व अध्यापकों की मदद से बच्चे 'हार कैसे स्वीकार की जाए' सीख सकते है।जिससे मानसिक परिपक्वता मिलती है, भावनात्मक मजबूती प्राप्त होती है, बच्चों को अपने आत्मविश्वाश व प्रतिभा में संदेह समाप्त होता है। विफलता का डर भी कई बार गलत कदम उठाने को मजबूर कर देती है, क्योंकि हमारे यहां परीक्षा में असफलता को व्यक्तिगत असफलता के रूप में ले लिया जाता है, जो बच्चों के आत्मसम्मान में कमी लाता है और डिप्रेशन जैसी बीमारीयों को जन्म देता है, चिंता को बढ़ाता है ।
अभिभावको को बच्चों पर अनावश्यक दबाव नही डालना चाहिए, प्रेरित करते रहना चाहिए, बच्चों की मानसिक स्थिति को समझने का भी प्रयास करना चाहिए, बच्चों की दिनचर्या में भी ऐसी चीजें शामिल करनी चाहिए जिससे उनको मानसिक शांति मिले ।कोचिंग संस्थान, विद्यालय या महाविद्यालय जहां भी आपका बच्चा अध्ययनरत है, परीक्षाओं की बजाय उसके मानसिक व भावनात्मक विकास पर ध्यान देना चाहिए । बच्चे की निरंतर काउंसलिंग भी करनी चाहिए, जिससे उसके हर प्रकार के तनाव व चिंता को कम किया जा सके। उसको यह भी समझाना चाहिए की जीवन में सफलता के लिए पढाई ही नहीं बल्कि समग्र व्यक्तित्व विकास व सकारात्मक दृष्टिकोण भी आवश्यक है।माता पिता बच्चे के मार्गदर्शक होते हैं, पथ प्रदर्शक होते है।उनको यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चे का एक अच्छा सामाजिक समूह हो, जो उसे उसके लक्ष्य की तरफ उन्मुख करें । जब बच्चे कुछ असामान्य करें तो उनको सुधारने का मौका देना चाहिए, उसकी शैक्षिक रणनीति बनाने में भी मदद करनी चाहिए।माता, पिता, अध्यापक व समाज मिलकर इन तथ्यों पर गौर करें. तो शायद बच्चों को विभिन्न समस्याओं से बचाया जा सकता है सकारात्मक परिणाम भी प्राप्त किए जा सकते हैं। उन सभी स्थितियों से बचा सकता है जो भविष्य के लिए चिंता की रेखाएं है । माता पिता की भागीदारी एक सकारात्मक कारक होती है।
आओ ! हम सभी मिलकर इस मुहिम पर विचार करें ।